कविताएं और भी यहाँ ..

Wednesday, November 28, 2012

कल से ही ...

कल आखिरी दिन है ,
फिर एक नया जीवन ।

कल आखिरी दिन है ,
फिर एक नया घर ।

कल आखिरी दिन है ,
फिर जुड़ेंगे ,
हज़ार रिश्तों में ,
कुछ और हजार रिश्ते ।

कल बनोगी तुम ,
एक पुल .
दो घरों के बीच ,
दो दिलों के बीच ...
कल से तुम दोगी सहारा,
कुछ और हज़ार उम्मीदों को ।

कुछ और नए "अपने",
कल से जुड़ जायेंगे ।
तुम्हारे "पतों" में
कुछ और नए पते जुड़ेंगे ;
बदल जाएगा,
कल से तुम्हारे घर का पता भी ।
अब स्टेशन पे उतर कर ,
बदल जायेंगे,
घर जाने के रास्ते भी ।
कल से ही बदल जाएगा ,
शहर,
और शहर के लोग भी ।

कल से जुड़ेंगे कुछ फोन नंबर भी ,
कुछ दोस्तों का नाम ,
शायद कुछ और नीचे चला जायेगा ।

अब सुनेगा ,
कोई और तुम्हारी परेशानिया ।
कल से कोई और सुलझाएगा ,
उन्हें ,
तुम्हारे पापा की तरह ।

कल ही तो है ,
वो दिन ,
जब तुम किसी और को
जीवन का अर्थ दोगी ,
कल से ही ,
कोई और तुम्हे अर्थ देगा ।
हाँ याद आया ,
कल तुम्हारी शादी है ,
कल से एक और नाम जुड़ेगा ,
जिम्मेदारियों में,

कल से ही
मैं इस तरफ से
तुम्हारा कल देख रहा हूँ ..
और कल के लिए दुआ भी है,
खुश रहो !!
अपने पिछले कल की तरह ...

Wednesday, November 21, 2012

दुनिया बदल गई है मेरे दोस्त !!


वक़्त के साथ रोज
बदलते - बदलते,
इस तरह बदले हैं,
कि,   
किरदार बदल गए हैं अपने ,

जो कभी जरूरत पे 
जो पुल बन जाते थे ,
वो अब दीवार नजर आते है ,
इस तरह 
असआर बदल गए हैं अपने ...

कभी रास्तों से 
सारे होर्डिंग पढ़ते गुजरना,
और  अब लोगों को पढने लगे है। 
इस तरह,
कारोबार बदल गए हैं अपने ...

कभी हर हाल में ,
हर बात पे  हँसने वाले ,
दुनिया की हँसी का शिकार है ,
इस तरह ,
तिरस्कार बदल गए हैं अपने ...

वो दिन थे जब सच बोलने पे,
पीठ थपथपाने का था रिवाज़ ,
अब हर जुबान पे लगाम है ,
इस तरह ,
पुरुस्कार बदल गए हैं अपने ..

कभी जूते के खुले बंद भी ,
आजादी का अहसास हुआ करते थे ,
अब  तो हर गले में पट्टा है,
इस तरह ,
पैरोकार  बदल गए हैं अपने ..

Saturday, November 3, 2012

my question on distorted history we read...

कभी उरूज है यहाँ, कभी जवाल है ..
ये जो खेल तारीखी है, बेमिसाल है |

मश्क हुई तारीख में गुम अफ़साने,
सूफी है, कहीं मुजरिम का ख़िताब है |

क्या गुजर गया पीछे मेरे आने तक ,
झूठ है या सच है, जो है बेहिसाब है |

क्या बताया, छुपाया गया हमसे ,
ये तो मेरा वक़्त से बड़ा सवाल है | 

ये जो खेल तारीखी है, बेमिसाल है,
गोया सच की शकल में सिर्फ बवाल है |

Tuesday, October 30, 2012

इस तरह नहीं तो उस तरह ही सही !!!


सबको रहमते बांटना तेरे बस में नहीं , 
फिर भूख ही बराबर बाँट दे जहाँ में ..

है जो छाँव भी सबको दे पाना मुश्किल ,
तो ये धूप ही तू बराबर बाँट दे जहाँ में ..

मेरे घर की टूटी छत का जो हिसाब है,
वो बरसात भी बराबर बाँट दे जहाँ में ..

वो धुडकी और हिकारत मेरे हिस्से की ,
कहीं उसका भी लेनदार मिल जाए तो ,

तो मेरे हिस्से का कुछ अपमान भी ,
थोडा थोडा बाँट दे तू अपने जहाँ में ..

नहीं मांगता तुझसे कोई दुआ मैं आज ,
मेरी परेशानियां बराबर बाँट दे जहाँ में |

तू जो सबको सब खुशियाँ न दे सका ,
मेरे पास कमियों का खजाना है भरा,

आज मैं गरीबी लुटा रहा हूँ खुले हाथ 
बाँट दे सब कुछ बराबर अपने जहाँ में |

-Mayank Goswami

Thursday, September 27, 2012

अजब है ...

उनकी ही शख्शियत के नीचे ,
उनका ही वजूद दबा पड़ा है ,
अजब है जब कद बढ़ता है,
तब तब नज़र से गिर पड़ते हैं|

इतना बड़ा नाम हो गया, 
कि अब बड़ा आम हो गया,
वो चल भी न पाए ठीक से,
उस नाम से सड़क चलती है  |

अजब हालात है मौसम के,
सच सुनते पसीने छूटते है ,
जो बर्फ़बारी  का दिन था ,
तब दिल जलते हुए देखे है |

Friday, September 14, 2012

बस यूँ ही !!



अब हौसले से ही लानी है ये नाव किनारे पे
कि जो अब बहाव से डरा तो मैं मर जाऊँगा |
मैंने  उम्मीद के भरोसे ही काटी है काली रातें ,
और वो सोचते है कि मैं  अँधेरे से डर जाऊँगा

Sunday, September 2, 2012

बिसरे शब्द ...


एक तीली ही तो जलानी है ..
फिर सब  ख़त्म ...
ये कुछ पन्ने,
जो फडफडा रहे हैं ..
फिर राख बन जायेगे ..
कौन  पढ़ेगा राख पे लिखे शब्द  ...

एक लहर ही तो आनी है ,
फिर सब  ख़त्म ...
ये कुछ अक्षर,
जो झिलमिला  रहे हैं,
फिर रेत बन जायेगें ..
कौन  पढ़ेगा  पानी में घुले  शब्द    ...

ये झौका ही तो आना है ,
फिर सब  ख़त्म  ...
ये कुछ अक्षर,
जो सरसरा रहे हैं,
फिर मरु बन जायेगें ..
कौन  पढ़ेगा हवा में उड़े  शब्द   ...

एक मौत ही तो आनी है ,
फिर सब  ख़त्म 
ये कुछ अक्षर,
जो गुनगुना रहे हैं,
फिर याद  बन जायेगें ..
कौन  पढ़ेगा याद में बिसरे  शब्द    ...

सब एक कहानी है ..
शब्दों से लिखी हुई.
सब आया ,
आग, पानी, हवा और मौत ...
बस एक तुम नहीं आये ...
आखिर तक ..

Sunday, July 22, 2012

"स्टेटिसटिक्स" ,

आजकल,
बदनसीबी का हिसाब कर रहा हूँ ,
समझते हो ना, 
"स्टेटिसटिक्स" ,
( अजीब शब्द है ,
उच्चारण कठिन है ,
बिलकुल तुम्हारी तरह.. )
हाँ तो ,
"स्टेटिसटिक्स" ,
कितना डूबे , कितना टूटे,
क्या खोया , क्या पाया ,
क्या जोड़ा , कितना तोडा,
जो गुम हुए  खुद में ,
और कभी खुद को ,
ढूंढ निकाला ...
और "एनालिसिस"  में पाया,
कि ये बदनसीबी तो ,
रस्सी में लगी ,
गांठों जैसा ही  है ,
जितनी ज्यादा हो,
ज़िन्दगी पे 
उतनी ही मजबूत पकड़ ,
लेकिन एक बात तो तय है ,
तेरे साथ वक़्त बिताकर ,
एक चीज तो ,
सीख ही गया ,
चेहरे के नीचे का चेहरा पढना,
बातों का मतलब पकड़ना ,
और सीख गया ,
कि हर वस्तु,
( ये  "वस्तु ",
कभी कभी "इंसान" भी है)
का एक नियत उपयोग होता है ,
समय के अनुसार ,
आवश्यकता के अनुरूप,
स्थिति के अनुरूप,
और सही कहूं तो ,
ज़िन्दगी का 
"स्टेटिसटिक्स",
तुमसे ज्यादा ,
किसने किया होगा ,
तभी तो हर चाल शानदार है ,
और हर तीर निशाने पे ..
तुम तो छुपे रुस्तम निकले,
ये सब करने के बाद भी ,
कहानी के नायक ही  हो ...

Monday, June 25, 2012

No title ....


जो शाम हुई सो डूब गया ..
ऐसा सूरज किस काम का ?

जो बदले हालात छूट गया ,
ऐसा साथ किस काम का  ?

तेरे भरोसे अकेला चल पड़ा,
तेरा  हौसला सिर्फ नाम का ?

मेरा नाम फिर गुमनाम है,
मेरा पता किस काम का ?

मेरे ईमान का मैं गवाह हूँ,
पूछना क्यों किस दाम का ?

तेरे जवाब फिर हज़ार है ,
हर सवाल का कत्लेआम सा  ?

मेरा आइना अब साफ़ है,
पर मेरा चेहरा बदनाम सा ?

मेरे घुटनों में कोई चोट है ,
और तेरे लिए मैं नाकाम सा ?

-Mayank Goswami

Wednesday, June 20, 2012

ये कविता नहीं है ..


अब बताओ ,
इस नए शहर का नाम क्या है ?
अरे शहर नया नहीं ,
ये तो बस नाम बदला है ...
और लोग, वो वैसे ही है क्या ?
वो तो तुम ही जानो ...
लेकिन ,
यादो की पोटली को खोलके
आज जो पता मिला है,
उसका पता तो इस शहर में ही नहीं ...
मिल ही नहीं रहा ,
न तो पता ,
और न ही वो जिसका ये पता था !
छोडो ...
और कहो ..
इस फ्लाई ओवर के पीछे ही था ना..
तुम्हारा घर ,
जो हर साल बदलता था ,
आखिरी बार यही तो था ,
जहाँ तक मुझे याद है ?
नहीं ,
वो तो गुरूद्वारे के सामने था,
यहाँ से तो वो सड़क जाती थी
और वहाँ से दिखाई देता था,
ये फ्लाई ओवर ..
हाँ, याद आया ,
उम्र बढ़ी है
और याददाश्त घटी है ..
और वहाँ पे हम ,
चाट खाया करते थे ,
जेब में होते थे तब दस रुपये ,
और मैं सबसे अमीर आदमी !!
हाँ ,
स्कूल तक पैदल जाने की सनक ,
याद है ,
साइकिल पे बैठकर ,
शहर का चक्कर ,
क्यों नहीं ,
मुझे तो वो भी याद है ,
प्यार इश्क सब फर्जीवाडा ,
पैसे ने सारा खेल बिगाड़ा !
हाँ ,
यही बात नहीं बदली तबसे,
आज तक ,
पैसे ने बिगाड़े है ,
सारे खेल,
कंचो से गोल्फ का सफ़र ,
इसी पैसे पे होता है ,
है ना ?
हाँ,
और प्यार का ढलना भी ,
इसी पैसे पे होता है ..
वैसे क्या दिया इस पैसे ने ?
सुकून , उम्मीद , ज़िन्दगी ?
ना ..
लेकिन कैसे नापोगे ,
कितने  सुकून है
और कितनी लम्बी ज़िन्दगी ,
लेकिन एक बात है ,
तुम्हारा साथ जबसे छोड़ा है ,
आराम बहुत है ..
तुम ,
कल भी यूँ ही भटकते थे,
पुराने शहर में ,
और आज तुम ,
शहर को तलाश रहे हो,
फिर से ,
उसी नाम के सहारे,
जो गम हो चुका है ...
होपलेस ..

Monday, May 28, 2012

मैंने देखा है..


गई शाम ज़िन्दगी को कसौटी पे कसके देखा है,
होते ही अँधेरा, परछाई को भी दूर जाता देखा है ...

देखा है बदलते रंगों को भी, जो बदस्तूर जारी है..
मैंने वक्ते जरूरत जेबों को होते हुए गहरा देखा है ...

मैंने तो ये भी देखा है कि वादों की उम्र कितनी है,
मैंने झुर्रियों से झांकता हुआ इंतज़ार भी देखा है ..

मैंने देखा है गिरगिटों औ' लोगों को साथ साथ,
मैंने तो सारी कसमों को भी रंग बदलते देखा है..

हर जुबाँ को उलटते पलटते देखा है मैंने बार बार,
मैंने आज ही हर शब्द का सही मतलब देखा है  ...

मैंने आँखों से परे देखा है और दिल से परे भी ,
मैंने आज ही कही खुदा का नया मतलब देखा है ..

मेरी आँखों पे ये पट्टी भी बंधी रहे, मुमकिन है, 
पर मैंने इन अंधेरो को उजालों से बेहतर देखा है 

Thursday, May 24, 2012

असमंजस


तो जो तुझे कभी याद नहीं करना ,
वो क्या है, सब तुम्हे याद रखना है !

अब कुछ जख्म यूँ  ही खुले रखना ,
वक़्त आने वाला आबाद रखना है  ...

मुंह फेर लिया उसने वक्ते जरूरत ,
भूल जा, बस करतूत याद रखना है ..

घर जला अपना, उजालो की खातिर ..
और सिर्फ  उजाले ही याद रखना है ..

साहिलों  पे बदनसीब ही डूबा करते है ,
अब  उथलेपन का हिसाब रखना है .. 

बड़े खुशनसीब हैं वो कुछ लोग यहाँ पे,
उन्हें सिर्फ अपना किरदार याद रखना है ..

और मैं क्या रखू साथ अपने, क्या छोडू,
मुझे बिला याद, वक़्त बेहिसाब रखना है  |

=>Mayank Goswami

Friday, May 11, 2012

तो याद करना छोड़ दिया ?


तो याद करना छोड़ दिया ?   

ह्म्म्म नहीं याद तो अभी भी करता हूँ..
बस अब यादो में रोना छोड़ दिया ..
जो सोना छोड़ना था मुश्किल बड़ा,
सो बस सपनो  में खोना छोड़ दिया ...
कि ये रास्ता बड़ा सख्त है फिर भी,
उस मोड़ को उसी मोड़ पे छोड़ दिया ...
देखो अब हँसना बहुत आसान हो गया,
उसी का का गम था उसी पे छोड़ दिया ..
एक ज़िन्दगी कम है कई कामो के लिए,
जो गैरजरूरी था  हालात पे छोड़ दिया |
कभी खो गया था जो तुममे एक उम्र,
उस उम्र को एक चादर से ओढ़ दिया ... 
फिर एक तू क्या घटा ज़िन्दगी से देख ,
मैंने  साथ  अपने हजारों को जोड़ लिया ..

Tuesday, April 10, 2012

मैं बड़ा जो हो गया हूँ ना !!


अब नहीं बनते दुश्मन मेरे
और नए दोस्त भी नहीं ...
अब खुद से ही सारे झगडे है
और खुद से सारी यारी भी |
 
अब नहीं बनाता मैं,
कागज़ के हवाई जहाज़,
अब जो बैठने लगा हूँ उनमे,
उड़कर कहीं दूर जाने के लिए ....
 
कागज़ की नाव तो हरगिज़ नहीं ,
तैरकर  कही दूर निकल जाती है ,
तो ताली भी नहीं बजाता मैं ,
और गीली होकर जब डूबती है,
तो अब रोता भी नहीं ...
 
कही किसी दीवार पे ,
या कापी के आखिरी पन्ने पे,
किसी कार के धूल भरे शीशे पे,
अपना नाम लिखना ?
वो कब का भूल चूका हूँ मैं |
 
अब मैं सिर्फ  हिसाब करता हूँ,
पैसो का,
कल का,
रिश्तों का,
ज़िन्दगी का ...
मैं बड़ा जो हो गया हूँ ना !!
 
 
 
 --mayank Goswami

Wednesday, February 22, 2012

मेरी पत्नी नेहा के लिए ...


कभी मैं सोचता हूँ ,
कि क्यों नहीं लिखता मैं ,
तेरे बारे में ,
क्यों नहीं उतारता,
कविताओं में तुम्हे ?
शायद  कविताएं मेरी ,
तुम्हे पाकर अमर न हो जाये,
इस डर से नहीं लिखता ,
नहीं चाहता मैं ,
कि कुछ भी रहे तेरे बारे में ,
पढने को ,
जब तुम यहाँ न हो ,
कि बहुत याद आओगे तुम,
हर शब्द के बाद ,
तुमसे लड़ना, झगड़ना ,
कभी हुआ ही नहीं
औरो की तरह ,
कि तुम चुपचाप ,
मुझे आत्मसात करते जाते ,
मेरी हर गलती पे ,
पर्दा डालते हुए ,
और तेरे इस विशाल व्यक्तित्व को,
शब्दों में बांधकर ,
मैं तुम्हे किसी सीमा में,
बांधना नहीं चाहता |
तुम,
आइना हो मेरे लिए ,
समझा हूँ जब ,
तुम नहीं हो आज आसपास ,
तो तुम्हे क्यों छोटा करू ?
कुछ लिखकर ..
तुम तो भावना हो,
जिसे मैं कभी शब्दों में,
बाँध ही नहीं सकता ...
तुम,
निरंतरता हो ...
निशब्द ,
आत्ममंथन की तरह,
मेरे अन्दर ही उपस्थित ..
तो क्यों बांधू मैं ,
शब्दों में तुम्हे ..
तू तो सारा आकाश है ,
जितना मैं देख पता हूँ ,
और कैसे लिख पाऊंगा ,
उस आकाश पे,
जो अनलिखा ही ,
पढ़ा जा सकता है | - mayank

Wednesday, February 8, 2012

यू गिरना ...


मैं कभी जो हार के गिर पड़ा,
वक़्त लगा पर फिर उठ गया |
और कभी गिरा किसी ठोकर पे ,
धूल झाड कर फिर खड़ा हुआ |
कभी दुःख ने गिराया धोखे से,
रोया, पोंछे आंसू और चल पड़ा |
यू गिरना पडना तो बस लगा रहा,
समझाता गया बचना है कहाँ-कहाँ |
कोई  बात तो है ऐसे गिरने में,
नई नसीहत लेकर हुआ खड़ा |
कभी आँखों से आंसू की तरह गिरा,
कि आचल में गिरा और सिमट गया |
पर किसी की नज़रो से ऐसा गिरना,
कि वो गिरता गया , बस गिरता गया,
और उठने कि कोई गुंजाइश ही नहीं ,
जो नजर से गिरा, वो दिल से उतर गया  |

Sunday, January 29, 2012

..........


हौसला टूटने की
कोई आवाज़ नहीं होती ?
कुछ ऐसी,
कि पहले,
चरमराये थोडा ,
थोडा गिड़गिड़ाये,
गिरे अपने घुटनों पे ,
और सूचित करे,
मैं टूटने वाला हूँ,
नहीं होता ऐसा, 
वो टूटता है,
झटके में ,
विश्वास   की  तरह ,
ईमान की तरह ,
इंसान की तरह  ...
और इनमे से ,
जब भी, कुछ भी ,
टूटता है ,
तो जुड़ता नहीं ,
वो ,
टूटने के बाद ,
चरमराता रहता है ,
आवाज़ करता है ,
कभी आँखों से बहते हुए,
और कभी ,
एकदम  चुपचाप ,
पर आवाज़ करता है ,
ताउम्र !

शौक


नहीं मिल रहे,
वो सारे शौक ,
जो एक दिन खासे गुस्से में,
किसी खूँटी पे टांग आया था ,
अब सिर्फ दिखता है,
शौक में छुपा हुआ गुस्सा ...
वो अरमान जो उस दिन,
किसी खीज में ,
अलमारी के एक कौने में ,
फेक आया था,
वो भी नहीं दिखता अब,
दिखती है तो सिर्फ खीज,
जो उसी कोने में पड़ी हुई,
चिढाती है मुझे बार बार ,
और एक अधूरा लिखा हुआ ,
उपन्यास भी है ,
जो उस शौक से उपजा था ,
अब उसे पढने की ,
कोई इच्छा ही बाकी नहीं है ,
लिखने की तो बात ही नहीं ,
बाकी है तो सिर्फ ,
उसे इतना ही रहने देने की जिद ,
काश मान ही लेता वो बात,
कि शौक से पैसा नहीं आता,
प्रतिष्ठा नहीं मिलती ,
मिलती है,
तो किसी फंतासी की तरह,
उलझी हुई सीख ,
कि दुनिया ऐसे नहीं चलती,
दुनिया वैसे नहीं चलती,
लेकिन कोई समझा ही नहीं,
कि दुनिया चलानी किसे है ,
जिंदगी चलानी थी,
वो शौक से चलती थी,
और शौक ही नहीं,
तो ज़िन्दगी भी ,
उसी खूँटी पे टंगी है,
पर वो भी दिखती नहीं,
सिर्फ टंगी है वही पे शायद ,
शौक की तरह ही ... 

Friday, January 20, 2012

खाली पेट ...


फिर सोचा, 
कि आज रात,
खाकर नींद को ही ,
चलाया जाए गुज़ारा  ;
कि आँखे 
बंद होने नहीं देता,
खाली पेट | 
उजालो में 
बहुत तलाशा ,
कि क्यों है वजूद ,
कि आँखे 
खुलने ही नहीं देता,
खाली पेट |
कभी धूप ही 
सेक ली,
पी ली ,
जी ली ,
खेल  ली ,
और खा ली ,
थोड़ी धौंस ,
नाश्ते में ,
दोपहर में ,
और एक अदद ,
शाम का खाना |
कि कभी ,
पूछने ही नहीं देता,
कि क्यों बनाया मुझे,
खुदा से ,
ये , 
खाली पेट |  

-मयंक 

Sunday, January 8, 2012

ज़िन्दगी या एक रेलगाड़ी

ज़िन्दगी


या एक रेलगाड़ी ,

कभी भागती सरपट,

और कभी रेंगती हुई,

उबाऊ,

कभी ख़त्म न होने वाले सफ़र सी ...

कभी अपना स्टेशन आने के पहले,

किसी अनजान जगह ,

घंटो खड़े रहने वाली उकताहट ,

या फिर ,

स्टेशन के आने के

ठीक पहले,

लाइन में सबसे आगे खड़े होकर ,

उतरने की जल्दी,

और आश्चर्य है कि,

ये जल्दबाजी तब भी थी,

जब रेलगाड़ी के अन्दर जाना था !!

कभी दरवाजे पे लटककर,

हवाओं को आँखे दिखाना,

और कभी,

दो - चार बूंदों से बचने के लिए,

सारी खिडकिया- दरवाजे बंद |

एक कम्पार्टमेंट ही जब,

पूरी दुनिया बन जाए,

या फिर दुनिया के सारे अजनबी,

एक ही कम्पार्टमेंट में ?

ज़िन्दगी फिर रेलगाड़ी क़ी तरह,

हर किसी को

उसके आखिरी स्टेशन पे पहुंचाती हुई,

कभी समय पर ,

कभी देर सबेर ,

और कभी कभी,

कभी नहीं ....

ज़िन्दगी रेलगाड़ी क़ी तरह ,

कही भागती सरपट

और कभी कभी ,

बहुत उबाऊ !!!