सुना है ज़िन्दगी के मायने बदल रहे हैं ,
घरों के देखो लोग आईने बदल रहे हैं !
मैं तो ये सोचकर ही दहशत में हूँ भाई ,
लोग दोस्ती के भी दायरे बदल रहे है ।
कभी मैं ठोकर पे गिरा था एक दिन ,
बाज़ार में उसके मुशायरे चल रहे हैं ।
उलझा हूँ, रौशनी का इंतज़ाम कैसे हो,
जब छतों पे जुगनू बेहिसाब चल रहे हैं ।
हवाओं की ठंडक जेहन तक क्यों नहीं ,
जब ज़िन्दगी में इतने तूफ़ान चल रहे हैं ।
छोड़कर जाए कहाँ मुसाफिर ज़िन्दगी को,
उसके भी तो कहाँ सही दाम मिल रहे है ।
तमाम उम्र का यही बही खाता बना है ,
वो ख़ाक समंदर हूँ जो गहरा भी नहीं है ।