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Monday, March 11, 2013

क्या लिख दूं ?


सुना है ज़िन्दगी के मायने बदल रहे हैं ,
घरों के देखो लोग आईने बदल रहे हैं !

मैं तो ये सोचकर ही  दहशत में हूँ भाई ,
लोग दोस्ती के भी दायरे बदल रहे है ।

कभी मैं ठोकर पे गिरा  था एक दिन ,
बाज़ार में उसके मुशायरे चल रहे हैं ।

उलझा हूँ, रौशनी का इंतज़ाम कैसे हो,
जब छतों पे जुगनू बेहिसाब चल रहे हैं ।

हवाओं की ठंडक जेहन तक क्यों नहीं , 
जब ज़िन्दगी में इतने तूफ़ान चल रहे हैं ।

छोड़कर जाए कहाँ मुसाफिर ज़िन्दगी को,
उसके भी तो कहाँ सही दाम मिल रहे है ।  

तमाम उम्र का यही बही खाता बना है ,
वो ख़ाक समंदर हूँ जो गहरा भी नहीं है  ।