मोहब्बत का रंग फिर दागदार निकला ,
इस बार भी वो एक किरदार निकला ..
जो खुशियों के चश्मे में नहाने गया था,
बाहर जब भी आया, तार तार निकला |
बहुत बेजुबां निकले दर्द और अफ़साने,
उस गली से मैं फिर भी बार बार निकला |
Wednesday, November 24, 2010
Saturday, November 13, 2010
प्रेम - 3
काश कभी जो तुमसे शुरू हो ,
कोई एक ऐसी शाम हो जाए |
की गर तू कभी याद ना आए ,
तो ये शख्स गुमनाम हो जाए |
ज़िन्दगी में तू है, ये बहुत है ,
ये सफ़र थोडा आसान हो जाए |
मैं क्यों तुझे यूँ देखू इस तरह,
कि तू बेवजह बदनाम हो जाए ?
ज़िन्दगी है रुक रुक के चलती है,
तेरी बाहों में ही अब शाम हो जाए |
मैं थक जाता हूँ यहाँ पे आजकल,
अपना कन्धा दे, थोडा आराम हो जाए|
अब तू ही बस बोलती रहे सब कुछ,
मैं सुनु और दुनिया बेजुबान हो जाए |
Monday, November 8, 2010
प्रेम ? - भाग -२
अपनी पिछली कविता प्रेम लिखने के बाद एहसास हुआ की बात तो अभी ख़त्म ही नहीं हुई, तो सोचा कि मैं तब तक लिखूंगा इसे जब तक सब कुछ नहीं लिख डालता ... जो भी मन में है या जो भी देखा सुना है मैंने जीवन में .. तो पिछली कविता के आगे की बात भी पढ़िए .. इस कविता में ( इसके पहले अगर आपने मेरी कविता "प्रेम ?" न पढ़ी हो तो कृपया उसे एक बार पढ़े ताकि प्रवाह बना रहे, इस कविता के ठीक नीचे है ) .
मैं अब तक यही समझा,
कि तुमने प्रेम भी किया है,
तो दया जानकर,
और मैं याद भी करता हूँ ,
तो दुआ मानकर |
तेरे न होने का ,
इतना फर्क तो पड़ा है मुझे ,
कि अब रातो को जागता हूँ,
मैं इबादत जानकर |
तुम्हारे स्पर्श को धो डालने की,
वो सारी कोशिशे,
जब नाकाम हो गई,
तो अपना लिया है मैंने,
उसे भी रिवाज़ मानकर |
तुमसे हुई उन सारी बातो का,
एक गट्ठा,
मैं अपने साथ लेकर,
चल रहा हूँ,
इस उम्मीद में,
कि किसी दिन शायद,
इसे पढने की शक्ति
मुझे मिल जायेगी |
तुमने तो अब
बोलना भी बंद कर दिया है ,
मुझसे,
मैं भी चुप बैठ जाता हूँ,
खुद को गूंगा मानकर |
मैं तुम तक पहुचने की,
कोशिशो में
अब भी जुटा हुआ हूँ,
तेरी यादो को ही,
एक सीढ़ी मानकर |
मैं उतना सफल न हो पाया,
न प्रेम में, न जीवन में,
जो पर्याप्त हो पाता,
तुम्हारे लिए,
पर अभी भी,
थोडा परेशान हूँ ,
कि,
प्रेम का मापदंड ,
क्या ये भी होता है?
पर तुम्हे तो पता है,
तेरी हर बात को,
मान तो लेता था मैं,
गीता का जानकर,
गंगा सा मानकर |
मैं अब तक यही समझा,
कि तुमने प्रेम भी किया है,
तो दया जानकर,
और मैं याद भी करता हूँ ,
तो दुआ मानकर |
तेरे न होने का ,
इतना फर्क तो पड़ा है मुझे ,
कि अब रातो को जागता हूँ,
मैं इबादत जानकर |
तुम्हारे स्पर्श को धो डालने की,
वो सारी कोशिशे,
जब नाकाम हो गई,
तो अपना लिया है मैंने,
उसे भी रिवाज़ मानकर |
तुमसे हुई उन सारी बातो का,
एक गट्ठा,
मैं अपने साथ लेकर,
चल रहा हूँ,
इस उम्मीद में,
कि किसी दिन शायद,
इसे पढने की शक्ति
मुझे मिल जायेगी |
तुमने तो अब
बोलना भी बंद कर दिया है ,
मुझसे,
मैं भी चुप बैठ जाता हूँ,
खुद को गूंगा मानकर |
मैं तुम तक पहुचने की,
कोशिशो में
अब भी जुटा हुआ हूँ,
तेरी यादो को ही,
एक सीढ़ी मानकर |
मैं उतना सफल न हो पाया,
न प्रेम में, न जीवन में,
जो पर्याप्त हो पाता,
तुम्हारे लिए,
पर अभी भी,
थोडा परेशान हूँ ,
कि,
प्रेम का मापदंड ,
क्या ये भी होता है?
पर तुम्हे तो पता है,
तेरी हर बात को,
मान तो लेता था मैं,
गीता का जानकर,
गंगा सा मानकर |
Friday, November 5, 2010
प्रेम ?
प्रेम
शायद तुम्हारे लिए
आसक्ति रहा हो,
पर मेरे लिए
कभी अभिव्यक्ति से आगे,
बढ़ ही नहीं पाया |
जब पीछे देखता हूँ,
तो पाता हूँ,
कि छूट गया है,
बहुत कुछ जो हो सकता है ..
आगे जाता हूँ,
तो दया आती है खुद पर .
कि कौन से चौराहे पे खड़ा हूँ,
जिसकी कोई भी राह,
घर को नहीं जाती |
मैं अपने में झाकने से
डरता हूँ,
कि जाने कौन सी याद ,
मुझे फिर से डरा देगी |
मैं तुम्हारे पत्र साथ तो रखता हूँ,
पर पढ़ नहीं सकता,
कि वो पढ़ते हुए,
हौसला टूटने लगता है |
और तुम्हारे चित्र,
मुझे कहते हैं कि,
तुम इतना भी नहीं कर पाए मेरे लिए |
मैं डरता हूँ,
आइना देखने से ,
वो हंसता है मुझ पर,
उसे भी डर नहीं लगता,
कि गर मैं तोड़ दूं उसे |
प्रेमगीत मुझसे कहते है,
तुम नाकाम हो ,
तुम शब्दों कि सुन्दरता को,
समझ ही नहीं सकते |
संगीत मुझे चिढाता है ..
मैं असमर्थ हूँ ,
और खुद से खफा,
टूटा हुआ ,
पर अभी भी उतना ही,
विनम्र हूँ और करीबी ?
मुझे नहीं पता ,
क्या पत्ते से टूटते ,
तुम्हारे प्रेम के इस भागीदार को ,
सम्हालोगे तुम ,
या किसी दिन सुबह,
आँगन में पड़े हुए पत्तो के ढेर सा,
घर के बाहर पटक दोगे,
जिसे सर्दी की किसी सुबह,
लोग आग समझकर,
ताप लेंगे |
चलो कोई तो संतुष्ट होगा मुझसे,
इसी बात पर,
अब टूट के गिरना
ही सही |
शायद तुम्हारे लिए
आसक्ति रहा हो,
पर मेरे लिए
कभी अभिव्यक्ति से आगे,
बढ़ ही नहीं पाया |
जब पीछे देखता हूँ,
तो पाता हूँ,
कि छूट गया है,
बहुत कुछ जो हो सकता है ..
आगे जाता हूँ,
तो दया आती है खुद पर .
कि कौन से चौराहे पे खड़ा हूँ,
जिसकी कोई भी राह,
घर को नहीं जाती |
मैं अपने में झाकने से
डरता हूँ,
कि जाने कौन सी याद ,
मुझे फिर से डरा देगी |
मैं तुम्हारे पत्र साथ तो रखता हूँ,
पर पढ़ नहीं सकता,
कि वो पढ़ते हुए,
हौसला टूटने लगता है |
और तुम्हारे चित्र,
मुझे कहते हैं कि,
तुम इतना भी नहीं कर पाए मेरे लिए |
मैं डरता हूँ,
आइना देखने से ,
वो हंसता है मुझ पर,
उसे भी डर नहीं लगता,
कि गर मैं तोड़ दूं उसे |
प्रेमगीत मुझसे कहते है,
तुम नाकाम हो ,
तुम शब्दों कि सुन्दरता को,
समझ ही नहीं सकते |
संगीत मुझे चिढाता है ..
मैं असमर्थ हूँ ,
और खुद से खफा,
टूटा हुआ ,
पर अभी भी उतना ही,
विनम्र हूँ और करीबी ?
मुझे नहीं पता ,
क्या पत्ते से टूटते ,
तुम्हारे प्रेम के इस भागीदार को ,
सम्हालोगे तुम ,
या किसी दिन सुबह,
आँगन में पड़े हुए पत्तो के ढेर सा,
घर के बाहर पटक दोगे,
जिसे सर्दी की किसी सुबह,
लोग आग समझकर,
ताप लेंगे |
चलो कोई तो संतुष्ट होगा मुझसे,
इसी बात पर,
अब टूट के गिरना
ही सही |
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