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Monday, March 16, 2015

शब्दों का चित्र

एक चश्मा ,
कभी गले में लटका हुआ ,
और कभी नाक को जकड़े ,
और
कुछ जोड़ी सादे से कपडे,
चार पेन,
काला, नीला , हरा और लाल ,
गोरा चेहरा ,
सर पे कुछ ना के बराबर बाल ,
एक स्कूटर,
बहुत सारी किताबें ,
हर तरह की,
विज्ञान की ,
राजनीती  की ,
कहानियों की,
अध्यात्म की,
इसकी ,
उसकी ,
हर  तरह की ,
पत्रिकाएं , अखबार ,
और काम ,
कॉलेज में व्याख्याता का काम ,
घर में एक मजदूर की तरह काम ,
और कभी पूछो ,
तो इतना कहना ,
"वर्क इज़ वरशिप एंड ड्यूटी इज़ गॉड"
और कभी ,
"वर्क लाइक ए लेबर  एंड लिव लाइक ए  किंग" ,
सारी उम्र कुछ बना रहे थे वो ,
अंत तक,
उस दिन तक,
उनके आखिरी  दिन के
पहले का आखिरी दिन,
जिस  दिन ,
मैंने बात की थी,
उनसे,
उस दिन तक,
वो कुछ बना रहे थे ,
मैं चित्रकार नहीं हूँ ,
इसीलिए,
ये शब्दों का चित्र है ,
मेरे पिता का ,
कभी कोई ढाल सके ,
तो ढाल दे रंग में ,
और हाँ ,
वो बना रहे थे जो,
आखिरी दिन तक,
वो हम थे,
उनके ,
बेटे और बेटियां
और अब
ज़िम्मेदारी हम पर है,,
बनाने की.....
कि काश हम ,
एक और बना पाएं ,
उनके जैसा  ।
सरल, मेहनती और
वो पिता  ,
जो कभी भेद ही नहीं कर पाया,
बेटो और बेटिओं में,
हाँ,
वो हमें ज़िम्मेदार बना रहे थे। 

3 comments:

Amol said...

Waah sir!! bhaav vibhor karne waali kavita...

Mayank said...

Thanks bhai :)

Madan Mohan Saxena said...

बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति