मुझे उम्र भर  तसल्ली  की  दवाई देता रहा ,
मरते वक़्त  भी  वो  सिर्फ  दुआए देता रहा |
मेरे होने  न  होने से  फर्क  इतना पड़ा होगा ,
आंसू निकले भी मेरे लिए तो सफाई देता रहा |
ताउम्र शराफत से जीने का  क्या फायदा हुआ,
बेईमानो के शहर  में ईमान की दुहाई देता रहा |
किसी ने जब भी देखा  , उसे इस अंदाज में देखा ,
कि अन्धो के नगर में सबको दिखाई देना लगा |
हैरत में हूँ  कि  मेरा  चेहरा पहचान खोने लगा है ,
अलग बनने की कोशिश में भीड़ सा सुनाई देने लगा

 
 
1 comment:
nice poem...
humeshaa likhte rehna...
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