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Sunday, November 20, 2011

वो परिंदे जब पेड़ो से उड़ गए

ये कविता विचलित मन के लिए ....

दिल में कितना शोर कर गए,
वो परिंदे जब पेड़ो से उड़ गए |
हम  साथ  में  हँसे , बहुत  हँसे
साथ  में  रोये,  बहुत  रोये |
फुर्सत मिली तो क्या सोचा कभी ,
उस मोड़ पे ही क्यों मुड़ गए |
सारे शौक अब अलमारी में रखे है,
तुम क्या गए,सब अरमान ले गए |
मैं नहीं चाहूँ तो भी क्या रुकता  है,
दिल है, अपनी मर्जी ही धड़कता है |
सफ़र में रहे और तुमको लगा कि,
शायद कुछ और ही जरूरी है ,
हम नीव के पत्थर ही तो  थे ,
गुमनाम है और बहुत नीचे दब गए |
जब मुड़ के देखो तो बहुत पीछे तक,
तो सिर्फ सन्नाटा ही है अब बीच में ,
और कुछ आवाजे आती है कभी कभी ,
कि,
हम  साथ  में  हँसे , बहुत  हँसे
साथ  में  रोये,  बहुत  रोये |
 

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