कविताएं और भी यहाँ ..

Sunday, January 29, 2012

..........


हौसला टूटने की
कोई आवाज़ नहीं होती ?
कुछ ऐसी,
कि पहले,
चरमराये थोडा ,
थोडा गिड़गिड़ाये,
गिरे अपने घुटनों पे ,
और सूचित करे,
मैं टूटने वाला हूँ,
नहीं होता ऐसा, 
वो टूटता है,
झटके में ,
विश्वास   की  तरह ,
ईमान की तरह ,
इंसान की तरह  ...
और इनमे से ,
जब भी, कुछ भी ,
टूटता है ,
तो जुड़ता नहीं ,
वो ,
टूटने के बाद ,
चरमराता रहता है ,
आवाज़ करता है ,
कभी आँखों से बहते हुए,
और कभी ,
एकदम  चुपचाप ,
पर आवाज़ करता है ,
ताउम्र !

शौक


नहीं मिल रहे,
वो सारे शौक ,
जो एक दिन खासे गुस्से में,
किसी खूँटी पे टांग आया था ,
अब सिर्फ दिखता है,
शौक में छुपा हुआ गुस्सा ...
वो अरमान जो उस दिन,
किसी खीज में ,
अलमारी के एक कौने में ,
फेक आया था,
वो भी नहीं दिखता अब,
दिखती है तो सिर्फ खीज,
जो उसी कोने में पड़ी हुई,
चिढाती है मुझे बार बार ,
और एक अधूरा लिखा हुआ ,
उपन्यास भी है ,
जो उस शौक से उपजा था ,
अब उसे पढने की ,
कोई इच्छा ही बाकी नहीं है ,
लिखने की तो बात ही नहीं ,
बाकी है तो सिर्फ ,
उसे इतना ही रहने देने की जिद ,
काश मान ही लेता वो बात,
कि शौक से पैसा नहीं आता,
प्रतिष्ठा नहीं मिलती ,
मिलती है,
तो किसी फंतासी की तरह,
उलझी हुई सीख ,
कि दुनिया ऐसे नहीं चलती,
दुनिया वैसे नहीं चलती,
लेकिन कोई समझा ही नहीं,
कि दुनिया चलानी किसे है ,
जिंदगी चलानी थी,
वो शौक से चलती थी,
और शौक ही नहीं,
तो ज़िन्दगी भी ,
उसी खूँटी पे टंगी है,
पर वो भी दिखती नहीं,
सिर्फ टंगी है वही पे शायद ,
शौक की तरह ही ... 

Friday, January 20, 2012

खाली पेट ...


फिर सोचा, 
कि आज रात,
खाकर नींद को ही ,
चलाया जाए गुज़ारा  ;
कि आँखे 
बंद होने नहीं देता,
खाली पेट | 
उजालो में 
बहुत तलाशा ,
कि क्यों है वजूद ,
कि आँखे 
खुलने ही नहीं देता,
खाली पेट |
कभी धूप ही 
सेक ली,
पी ली ,
जी ली ,
खेल  ली ,
और खा ली ,
थोड़ी धौंस ,
नाश्ते में ,
दोपहर में ,
और एक अदद ,
शाम का खाना |
कि कभी ,
पूछने ही नहीं देता,
कि क्यों बनाया मुझे,
खुदा से ,
ये , 
खाली पेट |  

-मयंक 

Sunday, January 8, 2012

ज़िन्दगी या एक रेलगाड़ी

ज़िन्दगी


या एक रेलगाड़ी ,

कभी भागती सरपट,

और कभी रेंगती हुई,

उबाऊ,

कभी ख़त्म न होने वाले सफ़र सी ...

कभी अपना स्टेशन आने के पहले,

किसी अनजान जगह ,

घंटो खड़े रहने वाली उकताहट ,

या फिर ,

स्टेशन के आने के

ठीक पहले,

लाइन में सबसे आगे खड़े होकर ,

उतरने की जल्दी,

और आश्चर्य है कि,

ये जल्दबाजी तब भी थी,

जब रेलगाड़ी के अन्दर जाना था !!

कभी दरवाजे पे लटककर,

हवाओं को आँखे दिखाना,

और कभी,

दो - चार बूंदों से बचने के लिए,

सारी खिडकिया- दरवाजे बंद |

एक कम्पार्टमेंट ही जब,

पूरी दुनिया बन जाए,

या फिर दुनिया के सारे अजनबी,

एक ही कम्पार्टमेंट में ?

ज़िन्दगी फिर रेलगाड़ी क़ी तरह,

हर किसी को

उसके आखिरी स्टेशन पे पहुंचाती हुई,

कभी समय पर ,

कभी देर सबेर ,

और कभी कभी,

कभी नहीं ....

ज़िन्दगी रेलगाड़ी क़ी तरह ,

कही भागती सरपट

और कभी कभी ,

बहुत उबाऊ !!!