मैं जब होता हूँ अकेला
और खाली हाथ |
मैं सोचता हूँ,
जब अँधेरे के बारे में |
अपना सा लगता है,
मुझे दीवारों का चुपचाप
खड़ा रहना |
बिना शिकायत, सर उठाये ,
किसी की भी फिक्र से ऊपर,
खुद से बेखबर,
कभी किसी के लिए सहारा,
और कभी किसी के लिए छाव |
दीवारे बोलती नहीं,
जवाब नहीं देती,
कभी कोई व्यंग्य नहीं,
दीवारे चुप रहती है
और
मिलाती है
हां में हां
या ना,
कोई नहीं जानता |
लेकिन सबसे अच्छी साथी है
क्योकि
चुप रहती है,
और
अहंकार का मान
रखती है,
सब कुछ चुपचाप सुनकर |
2 comments:
जीवन की सच्चाई को सच साबित करती एक बेहतरीन रचना के लिए बधाई।
धन्यवाद मनोज जी
इसी ब्लॉग में कुछ कविताएं और है .. जिन्हें आपकी टिप्पणियों का इंतज़ार है...
इसी ब्लॉग के अक्टूबर और सितम्बर के महीने की कुछ और पंक्तिया है...
उन्हें पढ़कर भी अपनी राय दे :)
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