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Thursday, October 1, 2009

जो कभी हुई नहीं ...

एक शाम याद है जो कभी ढली नहीं ..
एक सुबह का इंतज़ार है जो कभी हुई नहीं ...
उस घर के हालात क्या होगे , किस से पूछे ..
ना कोई हँसा , मैंने कोई चीख भी सुनी नहीं...
हर दर्द की दवा मौजूद है इस बाज़ार में ..
पर उस भूखे को रोटी की दुआ भी नहीं ..
उसको देखकर सासों का थम जाना वाजिब है ...
वो इस हालात में भी जिंदा है , मरा नहीं ...
दुश्मनी के त्यौहार बहुत पुराने नहीं हुए ..
दंगो से ज्यादा दिवाली की आवाज़ कभी हुई नहीं ..
बेहतर है हम तुम चुप ही रहे इस बात पर ...
बख्सा है हमको की उसने अपनी आवाज़ अभी सुनी नहीं ..
तमाशों और ज़िन्दगी में फर्क ज्यादा नहीं रहा अब ..
यहाँ हिचकियाँ और वहां सिर्फ तालियाँ बजती रही ...
मैं स्वार्थी और चालाक था, बच पाया इस जाल से ...
देखो वह कितनो की अंग्लुइया इस यज्ञ में जल रही ...
फुर्सत रही तो वो कभी सोचेंगे उसके हश्र को ...
अभी तो वो व्यस्त हैं , अंगुलिया अभी कुछ गिन रही ..

2 comments:

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

आपके भाव अच्छे हैं थोडा शिल्प पर ध्यान दे तो रचना सुन्दर होगी.


- सुलभ (यादों का इंद्रजाल वाले)

श्याम जुनेजा said...

मयंक जी, कविता को जीना हो तो व्यर्थ से मुक्त होना पड़ता है संसार जीना हो तो व्यर्थ में भी अर्थ तलाश कर लिया जाता है ..aapki kavita koi kam to nahin..bahut sundar rachnayen bahut sundar rachna prkriya...
aapki tippani ke liye bahut danyvad