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Sunday, October 25, 2009

मेरी खिड़की से आसमान नज़र आता है

मेरी खिड़की से आसमान नज़र आता है
पर मेरी छत से छोटा है ,
क्योकि बेहतर वही है जो ,
हाथ आता है ...

मेरी चादर मेरे पैरो से ,

बड़ी ही रखना मेरे खुदा ..
कि जरूरत के वक़्त ...
एक और समा जाता है ...

मैं इतना अधिकार तो नहीं रखता ,
पर इतना वक़्त देना ,
कि मैं कह सकूँ  ..
वो सब कुछ...
जो हर बार रह जाता है...

कभी कभी कहना बहुत होता है..
पर वक़्त की इस साजिश में 

कि वक़्त बहुत है ...
सारा वक़्त बीत जाता है..

2 comments:

मनोज कुमार said...

वैचारिक ताजगी लिए हुए रचना विलक्षण है।

Mayank said...

dhanyawad manoj ji