मेरी खिड़की से आसमान नज़र आता है
पर मेरी छत से छोटा है ,
क्योकि बेहतर वही है जो ,
हाथ आता है ...
मेरी चादर मेरे पैरो से ,
बड़ी ही रखना मेरे खुदा ..
कि जरूरत के वक़्त ...
एक और समा जाता है ...
मैं इतना अधिकार तो नहीं रखता ,
पर इतना वक़्त देना ,
कि मैं कह सकूँ ..
वो सब कुछ...
जो हर बार रह जाता है...
कभी कभी कहना बहुत होता है..
पर वक़्त की इस साजिश में
पर मेरी छत से छोटा है ,
क्योकि बेहतर वही है जो ,
हाथ आता है ...
मेरी चादर मेरे पैरो से ,
बड़ी ही रखना मेरे खुदा ..
कि जरूरत के वक़्त ...
एक और समा जाता है ...
मैं इतना अधिकार तो नहीं रखता ,
पर इतना वक़्त देना ,
कि मैं कह सकूँ ..
वो सब कुछ...
जो हर बार रह जाता है...
कभी कभी कहना बहुत होता है..
पर वक़्त की इस साजिश में
कि वक़्त बहुत है ...
सारा वक़्त बीत जाता है..
सारा वक़्त बीत जाता है..
2 comments:
वैचारिक ताजगी लिए हुए रचना विलक्षण है।
dhanyawad manoj ji
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