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Thursday, October 1, 2009

शब्दों के जाल

शब्दों के जाल में उलझा हुआ जीवन,
कितना नीरस होता है,
अपनी वास्तविकता से कोसो दूरी पर,
याठार्थ से बहुत ऊपर
बहुत उलझा हुआ
की जितना निकलने की कोशिश करो
उतना हिया नए जाल में फसता है .
वो सब लोग जो,
इस जाल में फस हुआ मुझे देख रहे है,
मेरी इस स्थिति से ,
अनुभव समेत रहे हैं,
सावधान हो रहे है,
वे कितना भी सजग रहें
फसना उन्हें भी है,
शब्दों के जाल में.
क्योकि मैं भी इतना ही सजग था
पर जो जाल अपना ही बुना हो
वो प्रारब्ध होता है.
देखा है कभी ,
किसी मकडी को जाल बनाते,
वह हाथ से बनता है,
और यह दिमाग से,
पर,
अंत वही होता है ,
दोनों का,
एक साथ उलझना.
इसीलिए,
जब मैं शब्दों के इस जाल में,
फसा हुआ हूँ,
अनुभव मत समेटो,
मेरी और देखो,
यह जाल जो मैंने बुना था,
कहा जानता था,
की अपने लियेही चुना था.,
इसीलिए चेतन पर चढ़े हुए
अनुभव की गर्द साफ़ करो,
कितना भी सजग कदम रखो,
जब फसना ही है तो,
मेरे अनुभवसे काम करो,
आज और अभी अपने सारे,
जाल साफ़ करो,
फिर न कोई दूसरा फसेगा,
न तुम फसोगे ,
पर तुम सबके लिए मैं अंतिम
पाठ रहंगा,
अपने ही जाल में फस हुआ,
पर संतुष्टि है,
किसी बहाने याद तो रहूँगा !!

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